भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नक्शे-क़दम पर चलते नेपाल के प्रधानमंत्री अथवा “इवेंट मैनेजर” खड्गप्रसाद शर्मा ‘ओली’।

एज़ाज़ क़मर, डिप्टी एडिटर-ICN
नई दिल्ली। हम भारतीय जब भी नेपाल के प्रधानमंत्री ओली’ का नाम सुनते-पढ़ते है, तो हमारे मन मे उनकी छवि एक भारत विरोधी राजनीतिज्ञ अर्थात हमारे देश के दुश्मन की बनती है,किंतु हक़ीक़त उल्टी है क्योकि नेपाल मे उन्हे भारत-परस्त अर्थात भारत के लिये ‘सॉफ्ट-कार्नर’ रखने वाला माना जाता है, वास्तव मे यह भ्रम ओली की बुद्धिमता-दूरदर्शिता और कार्यकुशलता का ही परिणाम है,कि उनके निकट संबंधी और मित्र भी यह नही जानते है कि उनका अगला क़दम क्या होगा?
ओली का बचपन बहुत अभाव मे बीता है जिसके कारण वह उचित शिक्षा भी नही प्राप्त कर सके फिर भी यह उनका करिश्मा ही है कि बुद्धिजीवी और विद्वानो का दल माने जाने वाली कम्युनिस्ट पार्टी मे वह शीर्ष पर पहुंच गये,जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने ‘मौत का सौदागर’ तथा ‘चौकीदार’ जैसे हथगोलो को कैच करके वापस विरोधियो के खेमे को ही तबाह कर दिया था,ठीक उसी तरह ओली अपनी विरोधियो की हर चाल को विरोधियो के गले का फंदा बनाकर उन्हे धूल चटा देते है।
खड्गप्रसाद शर्मा ओली का जन्म 22 फरवरी 1952 कोे एक ज्योतिष पण्डित मोहन प्रसाद ओली (ब्राह्मण) के घर परिवार मे हुआ जो नेपाल के तेर्हथुम ज़िले के निवासी थे,बाल्यकाल मे ही उनकी माता का देहान्त हो गया फिर उनकी दादी ने उनका लालन-पालन  किया,बचपन से पढ़ने मे कमज़ोर होने के कारण वह बड़ी मुश्किल से 1971 ईस्वीं मे मैट्रिक की परीक्षा (कक्षा 10) उत्तीर्ण कर पाये किंतु हिंदी और नेपाली भाषा मे किताबे पढ़ने के उनके शौक ने उन्हे ज्ञानी बना दिया और फिर वह पूरी तरीके से राजनीति मे सक्रिय हो गये।उनके राजनीतिक सफर की शुरूआत 1966 मे झापा ज़िले से हुई और वह झापा ज़िले के कई संसदीय क्षेत्रो से वर्ष 1991, 1994 तथा 1999 मे संसद के सदस्य चुने गये,फिर वह 1994-95 मे गृह मंत्री बने और वर्ष  2006 मे अंतरिम सरकार मे उप-प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री बने,उसके बाद उन्होने सी०पी०एन०-यू०एम०एल० के उम्मीदवार के रूप मे 2013 मे संविधान सभा के चुनाव मे झापा -7 सीट जीत ली।
4 फ़रवरी 2014  को सी०पी०एन०-यू०एम०एल० के अध्यक्ष झलनाथ खनल को संसदीय दल के नेता के चुनाव मे 23 मतो से पराजित करके वह संसदीय दल के नेता निर्वाचित हुये,उसके बाद नेपाल का नया संविधान लागू होने पर वह सुशील कोइराला को पराजित करके नये संविधान के अंतर्गत 12 अक्टूबर 2015 को नेपाल के पहले प्रधान मंत्री बने,किंतु 24 जुलाई 2016 को उनकी सरकार के अल्पमत मे आ जाने पर उन्होने राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र सौप दिया।
नेपाल की संघीय संसद मे “प्रतिनिधि सभा” (House of Representatives) के 275 सदस्य होते है जिसमे से 175 सदस्य एफ०पी०टी०पी० (First Past the Post System) प्रणाली के अंतर्गत चुनकर आते है और 100 सदस्य आनुपातिक प्रणाली (Proportionate System) के अंतर्गत चुने जाते है,”राष्ट्रीय सभा” (The National Assembly) के 59 सदस्य होते है जिसमे नेपाल के सातो प्रांतो (प्रदेशो) से आठ-आठ सदस्य चुने जाते है अौर 3 सदस्य मनोनीत होते है जिसमे से एक महिला, एक दलित तथा एक दिव्यांग होना आवश्यक है।
नेपाल मे 16 संसदीय समितियां भी होती है जिसमे से प्रतिनिधि सभा (House of Representatives) के अंतर्गत 10 (Finance, International Relations, Industry and Commerce, Labour and Consumer Interest, Law-Justice and Human Rights, Agriculture, Cooperative and Natural Resources,Women and Social State Affairs, Development and Technology, Education and Health, Public Account),राष्ट्रीय सभा (National Assembly) के अंतर्गत 4 (Sustainable Development and Good Governance, Legislative Management, Delegated Legislation and Government Assurances,National Interest and coordination among members) और दो (Parliamentary Hearing State Direction, Principle Rules and Responsibility) उभयनिष्ठ (Common) होती है।
प्रतिनिधि सभा मे ओली की पार्टी एन०सी०पी० (Nepal Communist Party) के एक सौ चौहत्तर (174) सदस्य है जबकि नेपाली कांग्रेस के (Nepali Congress) तिरेसठ (63), जनता समाजवादी पार्टी (Janata Samajwadi Party) के चौतिस (34) और चार (4) सदस्य निर्दलीय (Independent) है।राष्ट्रीय सभा मे ओली की पार्टी एन०सी०पी० (Nepal Communist Party) के पचास (50) सदस्य है जबकि नेपाली कांग्रेस (Nepali Congress) के छह (6) और जनता समाजवादी पार्टी (Janata Samajwadi Party) के तीन (3) सदस्य है और यह 6 वर्ष के लिये चुने जाते है,इसलिये अगर आंकड़ो का अध्ययन करे तो ओली की सरकार पर कोई संकट नज़र नही आता है,क्योकि प्रांतीय स्तर पर साडे़ पांच सौ (550) सदस्यो मे से भी लगभग साडे़ तीन सौ (350) सदस्य उन्ही की एन०सी०पी० पार्टी के है।चूँकि नेपाल मे लोकतंत्र का जन्म हुये अभी थोड़ा सा ही अरसा हुआ है जिसके कारण राजनीतिक दल और राजनीतिज्ञ अभी तक परिपक्व नही हुये है इसलिये रस्साकशी के चलते वहां हर साल एक नया व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाता है,इसलिये बहुमत के बावजूद भी ओली की सरकार खतरे मे है क्योकि उनकी सत्तारूढ़ एन०सी०पी० पार्टी उनको इस्तीफा देने के लिये मजबूर कर रही है और अगर वह इस्तीफा नही देगे तो उन्हे निष्कासित किया जा सकता है, क्योकि पैतालिस (45) सदस्य वाली पार्टी की स्थाई समिति मे लगभग तीस (30) सदस्य ओली के विरोधी नेता पुष्पकमल दहल प्रचंड और माधव नेपाल के पक्ष मे है किंतु संसदीय समिति मे ओली का बहुमत है।चूँकि पुष्पकमल दहल प्रचंड और माधव नेपाल संसद के इस सत्र मे अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहे थे,इसलिये ओली के सामने एक ही रास्ता बचा था कि वह पार्टी को तोड़ दे,किंतु नेपाल के नये संविधान के अनुसार किसी भी राजनीतिक पार्टी को तोड़ने के लिये स्थाई तथा संसदीय समिति के 40% सदस्य आपके साथ होना चाहिये।
ओली ने चाणक्य नीति का पालन करते हुये एक नया “अध्यादेश” (Ordinance) लाने का निर्णय लिया जिसके अंतर्गत किसी राजनैतिक पार्टी को तोड़ने के लिये संसदीय और स्थाई दोनो समितियो के बजाय सिर्फ एक समिति मे 40% सदस्य होना अनिवार्य होगा,इसलिये उन्होने राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के साथ मिलकर बालुवाटर मे कैबिनेट की आपातकालीन मीटिंग बुलाई और संसद के इस सत्र को स्थगित करवा दिया, ताकि उन्हे “अविश्वास प्रस्ताव” लाने के लिये अवसर ना मिले और ओली को “अध्यादेश” लाने का भरपूर समय मिल जाये।
प्रश्न होता है कि जब वह नेपाल के इतने लोकप्रिय प्रधानमंत्री है तो पार्टी को उन्हे निष्कासित करने की क्या जरूरत आ पड़ी है?
उत्तर बड़ा साधारण सा है कि उन्हे भारत के प्रधानमंत्री मोदी के नक्शे-क़दम पर चलने की सज़ा मिल रही है क्योकि वह जल्दबाज़ी मे निर्णय लेते है जिससे फायदे के बजाय उल्टे नुकसान हो जाता है और दूसरे वह प्रतीको (Symbolic) की राजनीति करके लोकप्रियता बटोरने का काम करते है।
नरेंद्र मोदी से पहले भी भारत मे दक्षिणपंथी नेताओ की कोई कमी नही थे किंतु “गुजरात के विकास मॉडल” के सहारे मोदी प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गये,किंतु केद्र मे पहुंचने के बाद उनका यह विकास मॉडल असफल हो गया और फिर नोटबंदी तथा जी.एस.टी. के बाद भारत की अर्थव्यवस्था चरमरा गई,तब उन्हे यह बात समझ आ गई कि विकास के सहारे सत्ता मे बने रहना संभव नही है इसलिये उन्होने भावनाओ पर आधारित राजनीति करके संसदीय राजनीति पर अपनी पकड़ पहले से ज़्यादा मजबूत कर ली।
दूसरे नरेंद्र मोदी की विशेषता यह है कि वह पहल करने से चूकते नही है और लंबित पड़े सभी मामलो को निपटाना चाहते है,इसलिये उन्होने नवाज़ शरीफ को अपने शपथ ग्रहण समारोह मे बुलाया और फिर अचानक पाकिस्तान यात्रा पर भी गये किंतु यह दांव असफल रहा और फिर उनकी राजनीति “सबका साथ-विकास-विश्वास” के बजाय “मुस्लिम” शब्द के आसपास केंद्रित होकर रह गई जिसके परिणाम स्वरूप देश मे लिंचिंग-दंगे तथा असुरक्षा की भावना बढ़ गई,लेकिन 370 पर लिये गये निर्णय ने पड़ोसी देशो मे भारत विरोध की लहर पैदा कर दी और सीमा पर युद्ध जैसा माहौल बन गया।
ओली परिवर्तनकारी विचारो के व्यक्ति है और वामपंथी होने के बावजूद उनका झुकाव पूंजीवाद की तरफ था क्योकि वह चीन की तरह खुले-द्वार की नीति अपनाकर निवेश को आकर्षित करने मे सफल हो रहे थे, किंतु जब उन्होने बिजली-प्रेषण लाइन तथा सड़क-निर्माण के लिये अमेरिका से 50 हज़ार करोड़ का अनुदान लिया तो उनकी पार्टी के धुर-वामपंथी नेताओ ने आसमान सर पर उठा लिया और उन्हे पूंजीवादियो का एजेंट कहना शुरू कर दिया,इसलिये उन्होने विकास के बजाय भावनाओ की राजनीति करना शुरू कर दी।
ओली पर उनकी अपनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भारत की तरफदारी करने का आरोप लगा रहे थे इसलिये उन्होने ऐसा दांव खेला कि अगर कोई नेपाली सांसद उसका विरोध करता तो वह देशद्रोही माना जाता और उसकी राजनीति चौपट हो जाती,क्योकि ओली ने नेपाल के “संविधान मे संशोधन” करके संसद से एक नया नक्शा पास करवा लिया जिसमे 1816 की सुगौली संधि के अंतर्गत भारत को दिये गये लिपुलेख और कालापानी आदि क्षेत्रो को नेपाल की सीमा के के अंदर दिखाया गया है अर्थात इन क्षेत्रो पर उन्होने नेपाल का दावा ठोक दिया,किंतु यह दांव उल्टा पड़ गया और भारत मे नेपाल विरोधी भावनाएं चरम सीमा पर पहुंच गई,परंतु ओली ने भारत से संबंध सुधारने के बजाय उल्टे भारत के ऊपर अपनी सरकार गिराने का आरोप लगाकर नेपाली जनता की सहानुभूति बटोरने का काम शुरू कर दिया।
अपनी राजनीति विफल होते देखकर पुष्पकमल दहल प्रचंड और माधव नेपाल ने ओली पर  आरोप लगाते हुये संसद मे निंदा प्रस्ताव पास कर दिया कि चीन ने नेपाल के कुछ गांवो को अपनी सीमा मे कैसे मिला लिया?
दूसरे उन्होने सवाल पूछा कि कैसे भारत उनकी सरकार गिराना चाहता है ?
इसके सबूत दे वरना माफी मांगे,इसलिये ओली ने ज़बरदस्त राजनीतिक दांव खेलते हुये संसद के सत्र को़ स्थगित कर दिया और भारत पर विस्तारवाद का आरोप लगाते हुये चुनावी प्रचार शुरू कर दिया,क्योकि अगर वह पार्टी तोड़ने मे कामयाब हो जाते है तब वह शक्तिशाली होकर सत्ता मे बने रहेगे और अगर असफल होते है तो वह राष्ट्रपति की मदद से संसद भंग करके चुनाव करवायेगे।
विपक्ष राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश करेगा और दूसरी तरफ ओली को भी रोकने का प्रयास करेगा,किंतु विपक्ष को जनभावनाओ का भी ध्यान रखना पड़ेगा क्योकि ओली राष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर अपनी नाव तेज़ी ले आगे बढ़ाने का प्रयास करेगे,परन्तु शायद विपक्ष मधेशी-आंदोलन को भड़का कर ओली को बैकफुट पर लाने का प्रयास करेगा।
संस्कृत के शब्द मध्य-देश के निवासी से बना है “मधेशी” अर्थात उत्तरप्रदेश-बिहार के भोजपुरी-मैथिली भाषी लोग जो नेपाल के मैदानी क्षेत्रो मे निवास करते है और जिनकी संख्या लगभग सवा करोड़ है,किंतु लगभग 55-56 लाख लोगो को अभी तक नेपाल की नागरिकता नही दी गई है जिसके कारण उन्हे नौकरी-व्यापार करने और संपत्ति खरीदने मे काफी समस्याओ का सामना करना पड़ता है फिर भी इतनी विषम परिस्थितियो के बावजूद वह आशावादी जीवन जी रहे है,परंतु राजनीतिक उपेक्षा उनको बहुत सताती है क्योकि नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रो मे लगभग सात-आठ हज़ार की आबादी पर एक सांसद होता है लेकिन मधेशियो की लगभग “एक लाख आबादी पर सिर्फ़ एक सांसद” होता है इसलिये यह लोग एक अलग “मध्यदेश” की मांग करते रहे है,ओली ने इस खतरे को भांपते हुये पाकिस्तान से अपने संबंध बढ़ाना शुरू कर दिये है क्योकि अगर भारत की तरफ से मधेशियो का समर्थन किया जाता है तब वह पाकिस्तानी आतंकवादियो को उत्तर प्रदेश और बिहार मे प्रवेश करवा देगे और अगर अंतरराष्ट्रीय दबाव मे पीछे हटना पड़ा तो चीन के इशारे पर कम से कम नक्सलवाद की आग ज़रूर लगवायेगे, इसलिये नरेंद्र मोदी के नक्शे-क़दम पर चल रहे ओली को फिलहाल रोकना संभव नही लगता है,किंतु कही ऐसा ना हो कि वह नेपाल के लिये भस्मासुर बन जाये?
नेपाल चीन और पाक का नापाक गठबंधन कही इस क्षेत्र मे आग ना लगा दे?
यह तो वक्त ही बतायेगा,किंतु महत्वपूर्ण यह होगा कि सोमवार को नेपाली सांसद क्या करते है?
क्या विरोधी सांसदो को मनाने मे ओली सफल होगे या फिर वह अपनी अलग पार्टी बनायेगे?
क़ाफ़िले मे सुबह के एक शोर है,यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या।
इब्तिदा-ए-इश्क़​ है रोता है क्या,
आगे-आगे देखिये होता है क्या।।

एज़ाज़ क़मर (रक्षा, विदेश और राजनीतिक विश्लेषक)

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